सकळ विश्व आनंदले | दैत्य अरिष्ट विलया गेले | अमर म्हणते खल खंडले | देवा तुझे नि प्रसादे | उन्मत मातला हा देत्य दुष्ट|
भूत सृष्ठी भूतळी अरिष्ट | आम्हा भोगविले परम कष्ट | पद्भ्रष्ठ झालो स्वामिया | ते तूझं न साहे अन्याय राहटी|
प्रगट जाहलासी कोरडे काष्ठी | दैत्य वदोनी उठा उठी | भक्त संकटी रक्षिला | भक्त सनाथ वैकुंठ पाळा | आमचा धरुनी कळवळा |
अवगलासी हे उग्र लीला | तीव्र तेज आच्छादी | सुरी स्तवोनि सिंधुजवरा | म्हणती असुर मारिला बरा | परी हे तेज पसरिले सैरा|
तेणे विश्व तापले | तो विश्वपाल जगन्नाथ जगपिडक मारिला दैत्य | परी हर्ष देई भय अद्भुत | अनर्थ वर्ते स्वामिया |
ऐकोनी देवाची करुणाउत्तरे नरहरी द्रवला कृपासागर | परी कोपाग्नी आवरीता न आवारे | मग विचार योजिला | म्हणे मम स्वरूप चिद्रूप खाणे |
प्रीती संगम कृष्णा वेणी | सकळ सरीतांची कुलस्वामिनी श्री करहाटक क्षेत्र स्थित | ते तव माझी तनु धारिणी |सरिता रूपे त्रीतापशमनी |
तेथे समूळ हा कोपअग्नी | स्नाना मात्र तियेचा | न ते सरिता परब्रह्मा अंगे |त्रिवेणी त्रिपाद गायत्री संघ| ब्रम्हा विष्णू रुद्र निजांग प्रीती मिनले जलारूपे |
श्री कर्हाटक पुण्य भूमी | प्रीतिसंगमा त्रिगुणात्मका | रज तम लोपोनी सत्वची एका | श्री विष्णू जळ रूपे राहिला |
तो हे अद्वयानंद शांत | सत्वाधिली प्रवाहादालीत नसी कोप संताप दुरित असा निश्चय बाणला | अएसे विचार करुनी अंतरी| हर्षे निर्भय तो नर्हरी|
पाताला कर्हाटक क्षेत्री समस्त देवा सहित | कृष्ण ककुद्मती प्रीतीसंगमी | निकट क्षेत्र पुण्यभूमी | पाहुनी निवाला अंतर्यामी |
समस्त देवा सहित | श्री कृष्ण जळी नर केसरी |रिघता सौम्य संतापलहरी | तद्रूप जाहला जळ शरिरी |
सत्वा सत्व मिनले | जैसा एकत्र उभयदीप्ती | होता प्रकाश कैसी द्वैत भ्रान्ति | तैसी हरी तनु नरहरी मूर्ती | एकात्म सिधी अभेद |
ऐसा पाहुनी समारंभ | देव मानिला परमलाभ | म्हणती चित्कला हे स्वयंभ | श्री कृष्ण विष्णू प्रत्यक्ष |
हे श्री विष्णूची स्वलीला कृती | श्री कृष्णवेणी सत्व गुण शांती | नरहरी तामस क्रोध मूर्ती | कार्य कारण अवगला |
तदर्थ जाणोनी शांत सलीला | हरी तनु स्नाने सुस्नात जाहला | नरहरी सौम्यता पावला | आनंद झाला सर्व जना|